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अंतरराष्ट्रीय बाल श्रम निषेध दिवस 12 जून विशेष, बाल श्रमिक इक़बाल मसीह

प्रसिद्ध बाल श्रमिक

इक़बाल मसीह 

1983-1995

एक दिन मौका मिल गया, वह बच्चा फैक्टरी से भाग खड़ा हुआ। दौड़ता चला गया। जैसे एक सांस में दौड़ता थाने पहुंचा था, ठीक वैसे ही एक सांस में थानेदार को पूरी दास्तां सुना दी,

मालिक, बहुत मारते हैं, बच्चों को गुलाम बना रखा है, बचा लो।

चूंकि ताउम्र चुनौतियों की धूप में तपना ही है, इसलिए हर बचपन ममतामयी व खोजता है, पर सबको छांव नसीब नहीं होती। अनेक बच्चे गोद से जबरन उतारकर चुनौतियों के हवाले कर दिए जाते हैं। पाकिस्तान का वह बच्चा भी गरीबी की भेंट चढ़कर ममत्व और गोद से महरूम हो गया था। हां, ऐसे परिवार भी होते हैं, जो अपने बच्चों को पैसे के लिए गिरवी रख देते हैं। जो बच्चा गिरवी चला जाता है, उसके साथ क्या-क्या होता है ?

उसे मिला है कालीन बनाने का काम, लगातार 14 घंटे की ड्यूटी, बीच में थकने या झपकी आने पर पिटाई। रोज मिलते हैं एक रुपये, मानो सूखे घड़े में एक बूंद जल। अगली बूंद मिलने तक पिछली बूंद सूख जाती है, घड़ा खाली ही रह जाता है। जबरी मशक्कत से छूटने की कोई सूरत नजर नहीं आती। गिरवी या कर्ज की रकम महज छह सौ रुपये थी, मगर बेहिसाब व्याज और जुर्माने के जोर पर बारह हजार रुपये के पार पहुंच गई है। हथकरघा पर काम करते धागों को सुलझाते-लगाते बदरंग हुई उंगलियों पर छाले उभर आते हैं। न पूरा खाना, न जरूरी आराम। हर पल ऊन और ऊन के मलबे की बदबू । न घर, न द्वार, न बाजार, न खेल, न मेले। कालीन बेहतरीन सिली जा रही है, पर मासूम बचपन निर्ममता से उधड़ता चला जा रहा है।

जबरी मशक्कत करते चार साल बीत गए हैं, वह बच्चा दस साल का होने को है, अब उससे बर्दाश्त नहीं होता। वह साथी मजदूर बच्चों से अक्सर कहता है, चलो, भाग चलें, पर किसी बच्चे की हिम्मत नहीं पड़ती। भागना शब्द सुनकर रूह कांप जाती है। उन बच्चों में कभी-कभी शायद ख्वाब में ही उम्मीद टिमटिमाती है कि कहीं से कोई आएगा, छुड़ा ले जाएगा।

खैर, एक दिन मौका मिल गया, वह दस साल का बच्चा फैक्टरी से भाग खड़ा हुआ। दौड़ता चला गया। थाने पहुंचकर ही दम लिया। जैसे एक सांस में दौड़ता थाने पहुंचा था, ठीक वैसे ही एक सांस में थानेदार को पूरी दास्तां सुना दी, मालिक बहुत मारते हैं, बच्चों को गुलाम बना रखा है, बचा लो, थानेदार पर असर न हुआ। थाने बच्चों की सेवा के लिए तो नहीं खुलते, वर्दी पहनकर अनाप-शनाप भकोसने कमाने के लिए होते हैं। फिर क्या था, थानेदार ने कानून और इंसानियत को ताक पर रखकर हैवानियत की महती सेवा की, उस बच्चे को फैक्टरी मालिक के पास सादर पहुंचा दिया। लगे हाथ चेता भी दिया कि ऐसे बच्चों को खुला मत छोड़ो, बेड़ियां डालकर रखो। उस दिन उल्टा लटकाकर बच्चे को पीटा गया था। बच्चे का शरीर पिटाई से टूट गया था, पर भागने के इरादे पर खरोंच तक न आई थी। वह फैक्टरी से थाने तक दौड़ते हुए जिस आजादी का आनंद ले चुका था, वह आजादी ही उसकी जिंदगी का निर्णायक लम्हा और असली मकसद बन गई। उसके पांव में बेड़ियां डल गई थीं। वह रोज हथकरघे से बांध दिया जाता था। उन्हीं दिनों उसे यह पता चला था कि पाकिस्तान में जबरी मशक्कत से सभी मजदूरों को आजाद कर दिया गया है, पर मिल मालिक ठेकेदार मजदूर बच्चों को आजादी देने को तैयार नहीं हैं।

वह फिर एक दिन मौका लगते ही भागा, जाहिर है, थाने नहीं गया। सीधे दौड़ते हुए बांडेड लेबर लिबरेशन फ्रंट की सभा में पहुंच गया,

साहब, मेरा नाम इकबाल मसीह है, रहम कीजिए, मुझे जुल्म और कैद से बचा लीजिए।

वहां उसका दुखड़ा सुनकर सबकी आंखें भर आई। वह कुपोषित बच्चा अपनी उम्र से आधी का दिखता था, छाले भरी हवेलियां, आंखों में निराशा की गहराई और त्वचा ऐसी रूखी, जिसे वर्षों से किसी ने सहलाया न था। फिर एक निर्णायक लम्हा आया। इकबाल के साथ उसके साथी बेबस मजदूर बच्चों को भी आजाद हवा नसीब हुई। साथ ही, अन्य हजारों बच्चों की आजादी की राह खुली।

बच्चों से श्रम कराते बेशर्म बेरहम लोगों को ललकारता वह दुनिया के अनेक देशों में गया। वह उन दिनों अमेरिका से अपने गांव लौटा ही था, साइकिल से घर जा रहा था, किसी कायर ने उस 12 वर्षीय बच्चे की पीठ पर गोली मारी इकबाल की मौत की खबर दुनिया में सनसनी की तरह फैली। बड़ी संख्या में संस्थाएं पाकिस्तान में मजदूर बच्चों की आजादी के लिए संघर्ष में उतर आई। इन संस्थाओं के लिए आज भी इकबाल मिसाल, है। कैद से छूटकर जल्दी पढ़ाई पूरी करके वकील बनने की ख्वाहिश रखने वाला यह बच्चा बार-बार कहता था, बच्चों के हाथों में औजार नहीं, कलम होनी चाहिए। जब भी बाल श्रम विरोधी दिवस मनाया जाता है, इकबाल की याद आती है।

एक बार जब वह अमेरिका में था और वापस पाकिस्तान आना चाहता था तो उस से पूछा गया था कि वह उस जगह वापिस क्यूँ जाना चाहता है जहाँ उसकी जान को खतरा है? इस बात पर इकबाल का जवाब था कि मेरा mission मेरे जीवन से ज्यादा महत्वपूर्ण है।

इकबाल को उसके महत्वपूर्ण योगदान और बहादुरी के लिए बच्चों का सबसे बड़ा पुरूस्कार The Worlds Childrens Honorary Award दिया गया।

इकबाल मसीह (1983-1995) को सम्मान देने में पाकिस्तान सरकार को 27 साल लग गए। इकबाल का सपना अभी भी साकार नहीं हुआ है, दुनिया में हर बचपन तक ममता की छांव नहीं पहुंची है।


ज्ञानेश उपाध्याय 

साभार: हिन्दुस्तान समाचार पत्र



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